मुस्लिम पक्ष को मंदिर निर्माण से आपत्ति नहीं, लेकिन मस्जिद के लिए 6 दिसंबर को रिव्यू पिटीशन दाखिल करेगा

अयोध्या मामले में रिव्यू पिटीशन लगाने की समय सीमा खत्म हाेने के अंतिम दिन यानी 6 दिसंबर को मुस्लिम पक्ष पिटीशन दाखिल करेगा। अयोध्या मामले में 9 नवंबर को फैसला आया था। सुप्रीम कोर्ट ने विवादित जमीन रामलला विराजमान को दी थी और अयोध्या में किसी प्रमुख स्थान पर 5 एकड़ जमीन मस्जिद के लिए देने के आदेश दिए थे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ रिव्यू पिटीशन लगाने के लिए एक महीने का समय होता है। यह समय 6 दिसंबर को खत्म हो रहा है, क्योंकि 7 और 8 दिसंबर को शनिवार-रविवार होने से कोर्ट बंद है। मुस्लिम पक्ष की ओर से 1973 से इस मामले की पैरवी कर रहे सुप्रीम कोर्ट के वकील जफरयाब जिलानी ने भास्कर से बातचीत में कहा कि हम समय सीमा के अंतिम दिन याचिका दायर कर देंगे।


जिलानी ने कहा कि हमें तो मस्जिद की जमीन से मतलब है। मंदिर या उससे बनाने के लिए ट्रस्ट बनने से हमें कोई आपत्ति नहीं। उसकी जो प्रक्रिया चल रही है, वह चलती रहे। हम तो फैसले के खिलाफ अपनी बात कहेंगे। रिव्यू पिटीशन में देरी के सवाल पर जिलानी कहते हैं कि तैयारी में समय लगता है। हम कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते। रिव्यू पिटीशन में राजीव धवन ही हमारे वकील रहेंगे। उन्हीं की सलाह पर हम रिव्यू पिटीशन लगा रहे हैं।


मुस्लिम पक्ष की दो प्रमुख दलीलें


1) जब मूर्ति नहीं थी तो किसे पूजते थे हिंदू
जिलानी कहते हैं कि जब निर्माेही अखाड़े का 1950 के पहले मूर्ति पूजा का क्लेम कोर्ट ने खारिज कर दिया, फिर हिंदू विवादित जमीन पर क्या करने जाते थे, क्योंकि हिंदूओं में तो मूर्ति पूजा होती है। हिंदू कानून में किसी को ऑब्जेक्ट मानकर पूजा होती है। अयोध्या मामले में पहले जमीन की बात थी, फिर देवता की बात कहां से आ गई? यही हम कोर्ट को बताएंगे। हिंदू धर्म में चोरी से दूसरे की जगह पर रखी गई मूर्ति को कैसे देवता माना जा सकता है?


2) अनुच्छेद 142 का गलत उपयोग हुआ
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में संविधान के अनुच्छेद 142 का जिक्र किया है, इस पर जिलानी ने कहा कि हम यही तो रिव्यू में कोर्ट को बताना चाहते हैं कि अनुच्छेद 142 का उपयोग गलत है। अनुच्छेद 142 का उपयोग वहां जायज है, जहां सरकार कोर्ट के आदेश का पालन न करवा सके या केस में फैक्ट न हों। जैसे बनारस में कब्रों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का उपयोग किया था, क्योंकि उसमें प्रशासन ने कहा था कि हम कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं। अयोध्या केस तो पूरा फैक्ट पर था। सुप्रीम कोर्ट खुद ही मान रही है कि 1949 में मूर्ति रखी गई। सुप्रीम कोर्ट खुद ही मान रही है कि 1858 से यहां मस्जिद थी और नमाज पढ़ी जाती थी।


जफरयाब जिलानी से बातचीत के संपादित अंश
 


क्या मस्जिद शिफ्ट की जा सकती है? पांच करोड़ और पांच एकड़ का पहले कब ऑफर मिला था?
नहीं। 2013 में यह वफ्फ एक्ट में सेक्शन 1004-ए में जोड़ा गया कि आप मस्जिद शिफ्ट नहीं कर सकते। 1986 में ताला खुलने से पहले उस समय के चेयरमैन फरहत अली से उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर ने कहा था कि आप मुकदमा वापस ले लीजिए। हम आपको मस्जिद बनाने के लिए 5 करोड़ रुपए और 5 एकड़ जमीन दे रहे हैं, लेकिन ये मानना संभव नहीं था।


इस फैसले को आप किस तरह देखते हैं?
देखिए, हम देश के समझदार नागरिक हैं और वकील भी हैं। ऐसा नहीं है कि हम इस फैसले से हतप्रभ रह गए हों। गलत फैसले होते रहते हैं। यह पहली बार नहीं हुआ है। हाईकोर्ट में भी फैसला आया था तो हमने अपील की थी। यहां अपील का अधिकार नहीं है तो रिव्यू करेंगे। ऐसा नहीं है कि इसमें सब कुछ हमारे खिलाफ रहा हो। बहुत कुछ हमारे हक में भी है।


क्या आप ट्रस्ट बनने पर स्टे मांगेंगे?
पूरे जजमेंट पर स्टे का तो सवाल ही नहीं उठता। अभी तो वे 3 महीने में ट्रस्ट बनाएंगे। ट्रस्ट के बाद वे मंदिर बनाने की कार्यवाही करेंगे। मंदिर बनाने के लिए आधी जमीन यानी 880 स्क्वायर यार्ड उनके पास है ही। हमारा विवाद तो अंदर की जमीन पर है। स्टे की जरूरत तो हमें मंदिर बनना शुरू होने के बाद होगी। पहले रिव्यू पिटीशन पर विचार होगा। रजिस्ट्रार, चीफ जस्टिस के सामने फाइल रखेंगे। इसके बाद बेंच बनेगी, क्योंकि बेंच के एक जज रिटायर होने के कारण बेंच में 4 जज ही बचे हैं। रजिस्ट्री में फाइलिंग के बाद हमारे सामने समय की पाबंदी खत्म हो जाएगी। इसके बाद पांचों जज चेंबर में डिस्कस करेंगे कि कोर्ट में सुना जाए या न सुना जाए। इसके बाद चीफ जस्टिस जैसा ऑर्डर करेंगे, वैसा होगा।


बाबर द्वारा विध्वंस की घटना और 6 दिसंबर की घटना को आप कैसे देखते हैं? क्या दोनों को एक समान मानते हैं?
बाबर के विध्वंस की घटना का कोई सबूत नहीं है। कोर्ट का कहना है कि 12वीं सदी के बाद वहां मंदिर के कोई सबूत नहीं मिलते। कोर्ट ने माना ही नहीं कि बाबर ने विध्वंस किया था। दूसरी घटना को कोर्ट ने माना है। किसी भी मस्जिद में मूर्ति रखकर अगर उसे देवता मान लिया जाएगा तो कोर्ट को इसे तो वेरीफाई करना होगा कि कौन-सी मूर्ति को देवता माना जाए। भले ही हिंदू कानून इसे न मानता हो।


रिव्यू पिटीशन पर मुस्लिम पक्ष कैसे बंट गया?
इतने बड़े देश में 25 करोड़ मुसलमान हैं। आप कैसे सबसे एक जैसी सोच की बात कर सकते हैं? सबकी अपनी-अपनी सोच है। कुछ रिव्यू के साथ हैं तो कुछ नहीं हैं। क्या कश्मीर मसले में सभी एक राय हैं? क्या अयोध्या मामले में सारे हिंदू एक राय हैं?


मुसलमानों के कुछ पक्षों का रिव्यू न लगाने का तार्किक आधार है?
तार्किक आधार यही है कि छोड़ दीजिए। सरेंडर कर दीजिए। माहौल ठीक रहे। अमन-चैन रहे। ये तो लोग बहुत पहले से कह रहे हैं। हिंदू विधि के अनुसार मंदिर या देवालय की भूमि, जहां पूजा-अर्चना कभी समाप्त न हुई हो, वहां देवता के अधिकारों को छीना नहीं जा सकता। फिर वादी नंबर एक के अधिकारों पर उसका कालांतर में कभी प्रभाव पड़ेगा? वादी नंबर एक वहां था ही नहीं। अगर वह होता तो उसके अधिकारों पर फर्क पड़ता। मस्जिद के बारे में भी यह फाइंडिंग नहीं है कि मस्जिद को मंदिर तोड़कर बनाया गया है।


क्या बाबर के समय कोई वक्फ किया गया था? अगर किया गया था तो सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहकर वक्फ मानने से इनकार कर दिया?
वे मस्जिद तो मान रहे हैं, लेकिन ये नहीं मान रहे हैं कि उसका उपयोगकर्ता कौन था? जब मस्जिद है तो उसका उपयोगकर्ता तो मुसलमान ही होगा न। मस्जिद का उपयोगकर्ता दूसरा कैसे हो गया। मुस्लिम पक्ष के वकीलों का कहना है कि वो दलीलें मान ली गईं, जिनसे मुकदमे के परिणाम पर कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन ऐसी दलीलें नहीं मानी गईं, जिनसे मुकदमे के परिणाम पर फर्क पड़ता।
वादी नंबर-2 लीगल पर्सन नहीं हैं, यह बात कोर्ट ने मान ली। कुछ चीजें जो भविष्य में फैसले पर प्रभाव डाल सकती थीं, वे सभी मानी हैं। कुछ बातें जजमेंट में नहीं आतीं तो दलीलें भविष्य में ओपन टू क्वेश्चन होतीं। क्या ऐसी मूर्ति जिसकी प्राण प्रतिष्ठा न हुई हो और जबरदस्ती रखी गई हो, वो कैसे देवता हो सकती है? ये कोर्ट में अभी भी तय नहीं हुआ है। कोर्ट को इसका कारण बताना होगा।


क्या मुस्लिम पक्ष नमाज पढ़ने के सबूत नहीं दे सका? क्या कमी रही आपकी तरफ से?
कोर्ट ने माना है कि मस्जिद थी। अगर मस्जिद थी तो कभी तो नमाज पढ़ी गई होगी। नमाज पढ़ने के सबूत नहीं हैं तो मस्जिद में और क्या होता होगा? खास बात यह है कि जब मुगल शासन रहा है तो मुस्लिमों को किसने नवाज पढ़ने से रोका होगा? कुछ काॅमन सेंस से भी कोर्ट को अप्लाई कर देखना होगा कि उस दौरान कोई चीन का शासन नहीं था, जो किसी को नमाज पढ़ने से रोकता। यही ग्रे एरिया है, जो स्पष्ट नहीं है।